क्या मनोवैज्ञानिक और अस्तित्व संबंधी प्रक्रिया आपस में जुड़ी हुई है? मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया की क्या अहमियत और सीमाएं हैं और क्या वह चेतनता की ओर जाने का सोपान बन सकती है?
प्रश्न : गुरुजी , आप कहते हैं कि अस्तित्व में जो कुछ है, वह सिर्फ ऊर्जा है, तो क्या व्यक्तिगत चीजों – जैसे प्रेम, कविता, उन्माद, क्रोध, सुंदरता, इन चीजों का वास्तव में कोई मतलब नहीं है? क्या मनोवैज्ञानिक और अस्तित्वपरक के बीच कोई संबंध नहीं है?
गुरुजी : अगर कोई वास्तव में अपने आस-पास की सभी चीजों से बहुत गहराई से जुड़ा हुआ है, तो मैं उसे नष्ट नहीं करना चाहता। अगर आप अपने जीवन से इतना प्रेम करते हैं तो मैं क्यों उसे लेना चाहूंगा? मैं उसे नहीं छीनना चाहता। मगर दुर्भाग्यवश मृत्यु आपको उनसे अलग कर देगी। मैं मृत्यु नहीं हूं, मैं तो बस एक चेतावनी हूं। मैं बस आपको याद दिला रहा हूं कि कुछ भी हो, ऐसा ही होगा। यह जानना बेहतर है कि ऐसा होने वाला है। आप किन चीजों की बात कर रहे थे? आपका प्रेम, आपका …
प्रश्न : प्रेम, कविता, उन्माद…
गुरुजी : ओह, उन्माद! प्रेम की अगर मैं बात करूंगा, तो मैं अनपोपुलर हो जाऊंगा। कविता शायद ठीक रहेगी क्योंकि बहुत से लोग कविता नहीं पढ़ते। उन्माद को मैं टच नहीं कर सकता क्योंकि यह एक यूनिवर्सल घटना है। तो मेरे लिए क्या बचा है? क्या कुछ और है?
प्रश्न : क्रोध, सुंदरता…
गुरुजी : ओह। तो कुछ चीजें हैं, जिनके बारे में हम बात कर सकते हैं। हर किसी में क्रोध नहीं होता क्योंकि गुस्से में रहने के लिए बहुत सारी ऊर्जा लगती है।
आपने ‘चे ग्वेरा’ के बारे में सुना है? हो सकता है कि आपने उसके बारे में न सुना हो, मगर शायद उसकी तस्वीर देखी हो क्योंकि दुनिया में लगभग हर जगह युवाओं की टीशर्ट पर उसकी तस्वीर होती है। इन दिनों लोग उसके बारे में नहीं जानते। उन्हें लगता है कि वह रॉक स्टॉर या ऐसा ही कुछ है। वह एक क्रांतिकारी था जिसे 50 और 60 के दशक में दुनिया भर में बड़ी लोकप्रियता मिली। मगर उसकी तस्वीर वाले टीशर्ट आज भी बिकते हैं। तो चे ने कहा था, ‘अगर आप क्रोधित हैं, तो आप हमारे साथ हैं।’ चे का एक प्रशंसक मेरे सामने इसे दोहराता रहता था। मैंने उसे कहा, ‘अच्छा, तो चे ने यह कहा था? मगर मैं कहता हूं – ‘अगर आप क्रोध से बाहर हैं, तो आप मेरे साथ हैं।’
आप उन चीजों से भी अटैच हो जाते हैं, जो आपको कष्ट देते हैं। समस्या यही है। आपका उन्माद कोई ऐसी चीज नहीं है, जिसको आप एन्जॉय करें। अगर वह हल्के स्केल का है, तो आपको लगता है कि वह आपके कैरेक्टर को एक एक्स्ट्रा डायमेंशन दे रहा है।
आपके ख्याल से वह आपको महत्वपूर्ण बनाता है क्योंकि वैसे कोई आप पर ध्यान नहीं देता। अब आपके उन्माद के कारण लोग आपके ऊपर ध्यान दे रहे हैं। बहुत से लोगों के लिए ध्यान आकर्षित करने का यही एक तरीका होता है। हल्के स्तर पर उन्माद के अपने फायदे हैं। लेकिन जब वह तेज हो जाता है, तो वह आपके ऊपर हावी हो जाता है। धरती पर कष्ट का सबसे गहरा रूप मानसिक रोग है। हर तरह की तकलीफ वास्तव में मानसिक रोग के ही अलग-अलग स्तर हैं। आम तौर पर वह हल्के स्तर का होता है। एक हद से आगे जाने पर वह बीमारी का रूप ले लेता है। अगर आप रोजाना पांच मिनट के लिए हल्के उन्माद की स्थिति में जाते हैं और फिर वापस आ जाते हैं तो आपको लगता है कि वह आपको महत्वपूर्ण बना रहा है। अगर किसी दिन आप उस स्थिति में गए और वापस नहीं आ पाए, फिर तो लोग आपको पागल कहेंगे। फिर आप कोई दिलचस्प व्यक्ति नहीं रह जाते, आप पागल हो जाते हैं।
आप जिन चीजों की बात कर रहे हैं – आपका प्रेम, कविता, उन्माद, क्रोध – ये सब सिर्फ मन के अलग-अलग रूप हैं। क्या मनोवैज्ञानिक पहलू पूरी तरह से अस्तित्वपरक से अलग है? आप खुद बताइए। अपनी ही मनोवैज्ञानिक गतिविधियों को ध्यान से देखिए कि वह कहां से आ रही है? आपने अपने दिमाग में जो सूचनाएं इकट्ठा की हैं, वह कुछ हद तक तक अस्तित्व संबंधी हो सकती हैं, मगर बाकी सब कुछ पूरी तरह मनोवैज्ञानिक है। अब मॉडर्न फिजीक्स यह साबित कर चुकी है कि आप अपनी पांच इंद्रियों से जो सूचनाएं इकट्ठा कर रहे हैं, वह वास्तव में वैसी नहीं होतीं, जैसी दिखती हैं। आप जो चीजें देखते, सुनते, सूंघते, चखते और छूते हैं, वह जैसी दिखती हैं, वास्तव में वैसी ही नहीं होतीं। जीवन के बारे में आपकी जो धारणाएं हैं, मॉडर्न न्यूरोसाइंस उसे पूरी तरह खारिज कर रहा है। वैज्ञानिक बातों को छोड़ दिजिए, आप अपने अनुभव के स्तर पर देख सकते हैं कि अगर आप चाहें, तो अपने मन में रोज एक नई प्रक्रिया पैदा कर सकते हैं। आप वास्तव में ऐसा कर रहे हैं। आज आप आश्रम में हैं – यह एक आध्यात्मिक क्रिया है। आप कहीं और जाते हैं – वह दूसरी तरह की क्रिया है। आप मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया के साथ जो चाहें, वह कर सकते हैं। लेकिन अस्तित्व जैसा है, वैसा ही रहता है। उसमें कोई बदलाव नहीं होता।
एक बार शंकरन पिल्लै ने एक मेडिकल कॉलेज में दाखिला लिया। वह पांच साल का कोर्स था। मगर वह हर चीज को इतने विस्तार से पढ़ रहे थे कि 10 साल के बाद भी वह कोर्स पूरा नहीं कर पाए थे। एक दिन वह लाइब्रेरी गए और एनाटॉमी की किताब देखने लगे। लोग 40, 50 साल से उसी किताब को पढ़ते आ रहे थे। आज भी ‘ग्रेज एनाटॉमी’ प्रचलित है। 10 सालों में वह लाइब्रेरी में मौजूद एनाटॉमी की दो-तीन किताबों को पढ़ चुके थे। वह लाइब्रेरियन के पास जाकर बोले, ‘मैं इससे ऊब चुका हूं। क्या कोई नई किताब नहीं लिख रहा?’ लाइब्रेरियन बोला, ‘पिछले 10 सालों में, जब से आप यहां हैं, मानव शरीर में एक भी नई हड्डी नहीं जुड़ी है, इसलिए कोई नई किताब नहीं लिखी गई है।’
आपका मन, आपका मनोवैज्ञानिक आयाम लगातार बदलाव चाहता है और रोज नई-नई चीजें पैदा कर रहा है। उसका अस्तित्व की प्रक्रिया से कोई लेना-देना नहीं है क्योंकि अस्तित्व हमेशा एक जैसा रहता है।
मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया ने सोचा कि हर समय एक जैसी रहने वाली चीज जरूर बोरिंग होगी। इसलिए जीवन आपको छुए बिना आपके बगल से गुजर गया। यह सवाल ही इसलिए पैदा हुआ क्योंकि अभी आपके जीवन में आपके लिए सबसे जरूरी चीज आपकी मनोवैज्ञानिक प्रक्रिइया है। आप यह मानने के लिए तैयार नहीं होंगे कि ये सारी चीजें बकवास हैं।
अब सवाल उठता है, ‘अगर आप मेरे उन्माद को बेकार की चीज कहकर खारिज करते हैं, तो आपको मेरे प्रेम को भी खारिज करना चाहिए। अगर मेरे क्रोध को खारिज करते हैं, तो मेरी भक्ति को भी खारिज करना चाहिए।’ जी हां, यहं सब बकवास और रद्दी है। लेकिन अभी आपके पास अपना सिर्फ यही चीजें हैं। तो फिर आपको कम से कम कुछ बढ़िया कूड़ा पैदा करना चाहिए क्योंकि अगर आपको परे जाना है, तो आपको इसका इस्तेमाल करना होगा। क्या मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया का अस्तित्वपरक प्रक्रिया से कोई संबंध है? अगर ऐसा होता तो मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया ऐसी चीज नहीं होती, जिसे आप इकट्ठा करते। वह आपका एक हिस्सा होता। लेकिन अभी पूरी मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया इकट्ठा की गई प्रक्रिया है। क्या इसका मतलब है कि मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया का कोई महत्व नहीं है? जरूर है। यह बस कुछ ऐसा ही है कि जैसे हम कपड़ों को पहनते हैं। पहली चीज यह कि ये हमारे शरीर को ढकते हैं। दूसरी चीज यह है कि यह हमें सजा सकते हैं या हम जो हैं, उसके बारे में कुछ बता सकते हैं। इन कपड़ों से आप कितनी ही अलग-अलग चीजें कर सकते हैं। लेकिन अगर आप यह सब नहीं करना चाहते, तो आप अभी इसे त्याग सकते हैं।
मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया का वास्तविकता से कोई संबंध नहीं है। तो क्या मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया का कोई महत्व ही नहीं है? यह ऐसा ही है, जैसे यह पूछना कि क्या आपके कपड़ों का कोई महत्व है?
जब तक आप जीवित हैं, जब तक आप समाज में रहते हैं, उनका महत्व और अर्थ होता है। यह सब निर्भर करता है कि आप किन हालात में हैं। यहां मैंने जिस तरह के कपड़े पहने हुए हैं, वह महत्वपूर्ण है। अगर मैं किसी रेगिस्तान में चला जाऊं, जहां दूर-दूर तक कोई न हो, तो मैं कपड़े पहनूं या नहीं, उसका कोई मतलब नहीं रह जाता। मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया ठीक ऐसी ही होती है। उसका संदर्भ जनित महत्व होता है। अगर आप किसी खास जगह पर होना चाहते हैं, तो आपको अपने मनोविज्ञान को एक खास स्तर पर रखना पड़ता है। अगर आप बेकार की चीज मानकर अपने मनोवैज्ञानिक पहलू को यूं ही बेलगाम छोड़ देते हैं, तो लोग आपको एक खास जगह पर छोड़ आएंगे। अगर आप एक कामलायक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया नहीं पैदा करते, तो कोई और तय करेगा कि आपको कहां पर होना चाहिए। उसी संदर्भ में इस प्रक्रिया का महत्व है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आपके जीवन में उसका कोई महत्व नहीं है। यह बहुत महत्वपूर्ण है कि आप अभी अपने भीतर किस तरह की मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया से गुजर रहे हैं, मुझे आपका प्रेम, आपकी कविता दोनों पसंद हैं… मगर आपके उन्माद के बिना शायद हम काम चला सकते हैं। मैं उसके बिना काम चला सकता हूं। मैं रोज काफी मात्रा में इसे देखता हूं।
मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया आपकी अपनी रचना है। अस्तित्वसंबंधी प्रक्रिया आपकी रचना नहीं है। यह स्रृष्टा की रचना है। मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया का आनंद उठाने में कोई समस्या नहीं है। लेकिन अगर आप उसमें डूब जाएंगे तो आप अस्तित्व की प्रक्रिया से पूरी तरह चूक जाएंगे। अगर आप अपनी रचना से कुछ ज्यादा मुग्ध हो जाएंगे तो आप स्रष्टा की रचना से पूरी तरह चूक जाएंगे। क्या वे आपस में जुड़े हुए हैं? मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया के बिना आप यहां मौजूद नहीं हो सकते। अस्तित्व की प्रक्रिया आपके हाथ में नहीं है। उसमें आप कुछ नहीं कर सकते – वह बस मौजूद होती है। मगर मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया आपकी अपनी रचना होती है, इसलिए आप जिस तरह चाहें, उस तरह उसे घटित कर सकते हैं। वह 100 फीसदी चेतन प्रक्रिया हो सकती है। आप उसे बाहर फेंक सकते हैं या वापस खींच सकते हैं। क्या आप हर समय ऐसा ही नहीं करते रहते? आज आप इस व्यक्ति से प्रेम करते हैं, कल सारा प्रेम नष्ट हो सकता है। ऐसा होता है।
आप चाहें तो अपनी मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया को बाहर फेंक सकते हैं या वापस समेट सकते हैं। आप अपने भीतर उसे घटित होने दे सकते हैं या उसे खत्म कर सकते हैं।
अगर आपके मनोविज्ञान के क्षेत्र में जो कुछ होता है, वह आप सोच समझकर चुनते हैं, तो मनोविज्ञान एक सुंदर बगीचे की तरह हो जाता है। अगर आप उस पर से काबू खो देते हैं, तो चाहे आप उसे प्रेम कहें, कविता कहें, क्रोध कहें, मगर वह सिर्फ वही एक शब्द बन जाता है, जो आपने कहा – काबू खोने पर वह सिर्फ उन्माद बन जाता है। जब वह एक चेतन प्रक्रिया नहीं रह जाता, तो वह सिर्फ उन्माद हो जाता है। आपकी मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया का अस्तित्व संबंधी प्रक्रिया से कोई संबंध नहीं है। लेकिन आप अपनी मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया को एक सीढी के रूप में इस्तेमाल कर सकते हैं, जिससे आप या तो उन्माद की ओर जा सकते हैं या आजादी की ओर। आप उसे पूरी तरह बाध्यकारी होने के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं या चेतन होने के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं। यह एक उपकरण है और आपकी रचना है। यह आपकी अपनी रचना है, इसलिए आपको इसे अपनी मर्जी से आकार देना चाहिए वरना इसका क्या मतलब रह जाएगा? अगर आपकी मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया चेतनता में घटित हो रही होती, तो आप अपने लिए आनंद के अलावा कुछ और नहीं चुनते। और जब आप अपनी प्रकृति से आनंदित होते हैं, तब आप खुद में किसी तरह की समस्या नहीं रह जाते, तो आप अस्तित्व की समस्याओं से निपट सकते हैं। जब आपका मन उतार-चढ़ाव से मुक्त होता है, तो वह वास्तविकता को उसके असली रूप में प्रतिबिंबित करने में सक्षम होता है।